Sunday, May 08, 2011

कुछ शब्द





माँ- वह शब्द जिसे सुनकर ह्रदय के भीतर संवेदनायों का सागर उमड़ पड़ता है. न जाने कितने भाव इसी एक शब्द में सिमटे हुए हैं. मेरे लिए कभी माँ, कभी मम्मू, कभी ममा, और जाने क्या क्या बन के खड़ी हो जाती हो. न जाने कितने अवतार एक ही जनम में लिए है आपने. जननी, भरणी, रक्षक, गुरु, मार्गदर्शिका, मित्र सभी कुछ तो हो मेरी. जब रोना आया आपके कंधो ने सहारा दिया और जब मैं हँसी तब आप भी खिलखिला कर मेरे साथ हँस दी. अपने अंग के टुकड़े को कुछ सालों पहले बाहर निकाल तो दिया था पर अभी भी उसके दर्द और ख़ुशी को वैसे ही महसूस करती हो जैसे अभी भी जिस्म से जुड़ा हो. न केवल मुझे रचा है आपने, पर इश्वर की भाँती मेरे ह्रदय की बातें भी बिन बोले समझ जाती हो. एक अलग ही शक्ति दी है विधाता ने माँ को. तभी तो भगवान कहलाती हो. धरती में देव का रूप धारण करती हो. 

याद है माँ बचपन में मैं अपने अनगिनत सवालों की झड़ी आपके सामने लगा देती थी. तब आप बिना किसी खीज के उन सभी सवालों के जवाब देने की कोशिश करती थी. कोशिश इसीलिए  क्यूंकि कुछ सवाल ऐसे थे जिनका कुछ उत्तर ही नहीं है, जैसे की सप्तरिशी मंडल का आकार प्रश्न चिन्ह जैसा क्यों है? बाकी घरवाले ज़रूर मेरे प्रश्नों की बौछार से उकता जाते थे पर आप नहीं. आप कहतीं कि उत्सुकता पर कभी कोई अंकुश नहीं   लगना चाहिए. शायद तभी ज्ञान की पिपासा हमेशा मुझमें सजग रही. 

थोड़ी बड़ी हुई तो बहस बाज़ी भी हुई आपसे. तर्क-कुतर्क का आदान-प्रदान भी हुआ. उम्र के प्रभाव के चलते विद्रोह करना भी दिमाग सीखने लगा था. पर आपके प्यार ने विद्रोही बनने न दिया और उस दिशाहीन उर्जा को नयी दिशा दी. 

मेरे जीवन में आप उसी सूर्य के भाँती हो जो घने वन में पेड़ों के बीच से झाँक कर धरती पर रौशनी की चिलमनें बना देता है और पथिक को अँधेरे में रास्ता दिखाता है.  चाहे कितने भी दूर हो, जब भी मेरे सामने अँधेरा ताड़ीका की भाँती मुंह खोल खड़ा हुआ आपने हमेशा सूर्य बन कर मुझे रौशनी दिखलाई. जैसे नया चाँद कनखियों से पृथ्वी पर नज़र रखता है, वैसे ही बिना बोध कराये आपने अपनी ममता भरी नज़र सदैव मुझे पर रखी और जब भी मैं लडखडाई आप को खुद के पास पाया. याद आती है आपकी गोद की बहुत जब भी आपसे दूर होती हूँ. जब भी परेशानियाँ ज़्यादा परेशान कर देती हैं, तब झट से आपकी गोद में सिर रख कर लेट जाती हूँ और सारे समाधान अपने आप सामने आने लगते हैं. कुछ जादुई छड़ी घुमा देती हो क्या मुझे बिना बताये?

माँ अपने बच्चों के लिए आपने अपनी सारी इच्छाएं, सारी कलायों का बलिदान चढ़ा दिया और उफ़ तक नहीं की. क्या आपको कभी आपके दिल औ दिमाग ने रोका न होगा? क्या कभी उन कलायों को अपने हाथों से फिसलता देख आपका दिल कचोटा नहीं होगा? पर आपने कभी हमें पता न चलने दिया. कैसे इतना बड़ा त्याग किया माँ? क्या यही होता माँ होना? और बदले में यदि संतान पूछे कि क्या किया है आपने मेरे लिए? तो कैसा लगता होगा? क्या कभी लगा कि क्यूँ किये होंगे ये बलिदान? या फिर यह प्रश्न ही कभी ज़ेहन में नहीं आया होगा? सोचा होगा कि ऐसी क्या गलती हुई कि बच्चे को यह ख़याल आया और दोबारा न आये उसके लिए प्रयासरत रहीं? कैसे इतना असीम धैर्य पाया?

अब बड़ी हुई हूँ तो बहुत सी इच्छाएं हैं ह्रदय में. जैसे आपने खुद कड़ी धूप सह कर मुझे छाया दी, वैसे ही अब मैं आपको ठंडी छाँव में रखना चाहती हूँ. जो कभी आपने ख़्वाब देखे होंगे उन्हें पुनः जीवंत कर साकार करवाना चाहती हूँ. मातृ-ऋण तो कभी चुक नहीं सकता पर अपने जीवन का लक्ष्य आपको अनंत ख़ुशी और सुख देना मानती हूँ. यदि इस उद्देश्य के आस पास भी फटक पायी तो खुद को धन्य मानूँगी.

बस एक ही बात बोल सकती हूँ माँ, सिर कृतज्ञता से स्वयं झुक जाता है जब भी आपका चेहरा सामने आता है. आपका एक अंश, आप ही के कारण हूँ माँ, धन्य हूँ कि आपकी बेटी हूँ माँ. 

Saturday, May 07, 2011

असलियत

कहते हैं लोग कई
कि
फितरत में है मेरी रूखापन.
शायद किसी रोज़ 
एक बीज को भी
ऐसा ही कुछ
कहा होगा किसी ने 
और गुस्से से 
फ़ेंक दिया होगा
मिट्टी पे.
फ़िर,
आई होगी बरसात
और उसके बाद
गुनगुनी धूप.
फूटें होंगे अंकुर 
उस कठोर निष्ठुर बीज से.
मिट्टी, पानी और धूप
के प्यार से
अंकुर बदला
एक मासूम पौधे में
और पौधा
एक वृहद् वृक्ष में.
शायद वही वृक्ष 
आज मेरे आँगन में
मीठे रसीले फलों से झुका खड़ा है
और बाँट रहा है 
अपनी ठंडी छाया 
फलों की महकती बयार.
क्या होता 
अगर फेंका न होता
गुस्से से मिट्टी में उसे?